Friday, August 19, 2016

दलित विमर्श और भारतीय समाज के विरुद्ध षड्यंत्र

दलित विमर्श और भारतीय समाज के विरुद्ध षड्यंत्र
          “स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं कैसे दूँ मैं? स्वतंत्रता का मतलब होता है पूर्ण आज़ादी। आज़ादी गुलामी से, आज़ादी भेदभाव से, आज़ादी तब सही मायने में मानी जाती है जब हर किसी को एक समान अधिकार हो। क्या इस देश के हर नागरिक को समान अधिकार है? नहीं।
मैं एक सवर्ण हूँ। मुझे काबिल होने के बावजूद असमानता के दंश को झेलना पड़ता है। मेरी जाति के वजह से मुझसे पक्षपात किया जाता है। सन् 1947 के पहले अँगरेज़ हमसे पक्षपात करते थे और अब हमारी सरकार हमसे पक्षपात करती है, तो कैसे हो गया मैं स्वतंत्र? मैं तो आज भी आरक्षण नाम के ज़ंज़ीर से जकड़ा हुआ हूँ, कैसे कहूँ मैं खुद को स्वतंत्र? मेरी जाति मेरी काबिलियत पर हावी है, कैसे मान लूँ मैं खुद को स्वतंत्र? नहीं, मैं स्वतंत्र नहीं, मेरे पूर्वजों के बलिदानों के बावजूद मुझे मेरे ही देश में मूलभूत अधिकारों से वंचित रखा गया है, कैसे मान लूँ मैं खुद को स्वतंत्र?
स्वतंत्रता मेरे लिए उस दिन होगी जिस दिन इस देश के हर नागरिक को समान नज़र से देखा जायेगा। जिस दिन युवाओं को अवसर उनकी काबिलियत देख कर दी जायेगी, जाति देख कर नहीं। जिस दिन इस देश का हर नागरिक दलित और सवर्ण के मापदंड से बरी कर दिया जायेगा और हर नागरिक भारतीय के रूप में पहचाना जायेगा उस दिन मनाऊंगा मैं आज़ादी। तब तक जातिगत आरक्षण को ख़त्म करने की मेरी लड़ाई जारी रहेगी।“ ये उद्गार आज समानता से वंचित किये गए एक सवर्ण बालक के हैं, जिसे हमारे स्वतंत्र देश के न्यायकारी संविधान निर्माताओं ने उसे समानता के इस अधिकार से इसलिए वंचित किया है क्योंकि उसके पूर्वजों ने संभवतः किसी दलित के साथ कुछ गलत किया होगा।
        एक मेमने की कहानी याद आती है जो एक झरने की धारा के निचले भाग में पानी पी रहा था तभी उस पर एक भेडिये की नजर पड़ती है और वो उसे खाने के लिए लालायित हो जाता है। भेडिया मेमने से कहता है तुम मेरे पानी को गन्दा क्यों कर रहे हो। मेमना हाथ जोड़ कर कहता है “महोदय, लेकिन पानी तो आपकी तरफ से बहकर मेरी तरफ आ रहा है, तो पानी में कैसे गन्दा कर सकता हूँ” । इसपर भेडिया बोला “तो गतवर्ष तुमने पानी गन्दा किया था”। मेमना पुनः हाथ जोड़ कर कहता है “महोदय, लेकिन मेरी उम्र तो मात्र छः माह ही है”। इसपर भेडिया बोखलाकर कहता है तो तुम नहीं तो तुम्हारे पिता जी रहे होंगे और मेमने को खा जाता है। कुछ ऐसा ही तर्क सवर्ण बच्चों को उनके न्यायप्रिय संविधान निर्माताओं ने उसे समानता के इस अधिकार से वंचित करने के लिए दिया है की तू नहीं तो तेरे पूर्वजों ने किसी दलित के साथ कुछ गलत किया होगा। कमाल का न्याय है। मेरा भारत महान है|
वास्तविकता जबकि यह है कि एकलव्य का अंगूठा काटा गया था तो द्रोणाचार्य भी मात्र एक गाय के लिए तरसे थे, अपमानित भी किये गए थे। उस युग में एक ही अपराध के लिये ब्राह्मण को किसी दलित की अपेक्षा 16 गुना दंड भी मिलता था। इस लिहाज से तो महाभारत काल ब्राह्मण विरोधी हो गया और मनु_स्मृति भी ब्राह्मण विरोधी ही हुई। फिर उसी युग में एक मछुआरन की संतान वेदव्यास ने महाभारत लिखी थी। और त्रेता युग में वाल्मीकि ने रामायण लिखी थी। जब एकलव्य की जात बताते हो, तो हिडम्बा की जात भी बता दो और ये भी बता दो की उसी हिडम्बा के पोते खांटू श्याम को हिन्दू-भगवान की तरह पूजा जाता है। ध्यान रहे , न्याय-अन्याय हर युग में होते हैं और होते रहेंगे, अहंकार भी टकराएंगे,
      कभी इनका तो कभी उनका ,यह घटनायें दुर्भाग्यपूर्ण होती हैं। पर उससे भी दुर्भाग्यपूर्ण होता है इनको जातिगत रंग देकर, उस पर विभाजन की राजनीति करके राष्ट्र को कमजोर करना।
यदि किसी सवर्ण ने भीम राव का अपमान किया, तो किसी सवर्ण ने ही उनको पढाया भी। किसी एक घटना को अपने स्वार्थ के लिए बार-बार उछालना और बाकी घटनाओ पर मिट्टी डालना, कौन सा चिंतन है। यह दलित चिंतन नहीं, यह केवल राष्ट्रद्रोहियों द्वारा थोपा हुआ दोगला चिंतन है। अतः इससे बच कर दलित-सवर्ण में षड्यंत्रकारियों द्वारा आप्रकृतिक रुप उपजाए जा रहे भेदभाव को नष्ट करके हिन्दू धर्म की महानता की रक्षा करो।
भारतीय इतिहास का पहला सम्राट "चन्द्रगुप्त मौर्य" जाति से शूद्र था, और उसे एक सामान्य बालक से सत्ता का शिखर पुरुष बनाने वाला चाणक्य एक ब्राम्हण। सदियाँ गवाह हैं, भारत का इतिहास मौर्य वंश के बिना बिल्कुल अधूरा है। आजादी के बाद से राजनैतिक स्वार्थों के लिए एक सुनियोजित षड्यंत्र के तहत दलित उत्थान के नाम पर जो खेल खेला गया, उससे सबसे ज्यादा दलित प्रभावित हुए। दलितों से उनका पारंपरिक आय का स्रोत छीना गया। अजीब लग रहा है न? आइये साक्ष्य देखें। प्राचीन भारत, जो जातियों में बटा था, उसमे हर जाति के पास रोजगार के साधन उपलब्ध थे। कुम्हार बर्तन बनाता, लुहार लोहे का काम करता, हजाम हजामत का काम करता, अहीर पशुपालन करते, तेली तेल का धंधा करता आदि, आदि। कोई भी जाति दूसरी जाति का काम छीनने का प्रयास नही करती थी। इस व्यवस्था के अनुसार दलितों का जो मुख्य पेशा था, वह था- पशुपालन (डोम का सूअर पालन), मांस व्यवसाय, चमड़ा व्यवसाय और सबसे बड़ा बच्चों के जन्म के समय प्रसव कराने का कार्य। एक सुनियोजित षड्यंत्र के तहत दलितों को यह एहसास दिलाया गया कि आप जो काम कर रहे हैं, वह गन्दा है, घृणित है। फलस्वरूप वे अपने पेशे से दूर होते गए और उनसे ये सारे धंधे छीन लिए गए। पर दलितों के छोड़ देने से क्या ये काम बन्द हो गए? आज तनिक नजर उठा कर देखिये, चमड़ा उद्योग और मांस उद्योग का वार्षिक टर्न ओवर लाखों करोड़ों का नहीं बल्कि खरबों का है। आज यह व्यवसाय किस जाति के हाथ में है? आपकी हमारी आँखों के सामने दलितों से उनकी आमदनी का स्रोत छीन कर एक अन्य समुदाय के झोले में डाल दिया गया और हम यह चाल समझ नही पाये। उत्तर प्रदेश में जय भीम, जय मीम के धोखेबाज नारे के जाल में दलितों को फंसा कर उन्हें अन्य हिन्दुओ के विरुद्ध भड़काने वालों की मंशा साफ है, वे आपको सौ टुकड़े में तोड़ कर आपके सारे हक लूटना चाहते हैं। तनिक सोशल मिडिया में ध्यान से देखिये, दलितवाद का झूठा खेल अधिकांश वे ही लोग क्यों खेल रहे हैं जिन्होंने दलितों के पेशे पर डकैती डाली है। दलितों की दुर्दशा के सम्बंध में जो मुख्य बातें बताई जाती हैं, तनिक उनका विश्लेषण कीजिये। वे आपको बताते हैं, ब्राम्हणों ने दलितों से मल ढोने का काम कराया... इतिहास और प्राचीन साहित्य का कोई ज्ञाता बताये, क्या प्राचीन सनातन भारत में घर के मण्डप के अंदर शौचालय निर्माण का कोई साक्ष्य मिलता है? कहीं नही। सच तो यह है कि भारत में घर के अंदर शौचालय बनाने की परम्परा मुगलकाल में फैली। भारत के गांवों में तो आज से तीस चालीस वर्ष पहले तक शौचालय होते ही नही थे। फिर इस घृणित परम्परा के लिए सवर्ण कैसे जिम्मेवार हुए? आपको इतना पता होगा कि मध्यकालीन भारत में हिंदुओं का सबसे ज्यादा कन्वर्जन हुआ। तनिक पता लगाइये तो, क्या धर्म परिवर्तन के बाद एक तेली पठान हो गया? कोई लुहार क्या शेख हो गया? नहीं न! तेली ने धर्म बदला तो मुसलमान तेली हो गया। हजाम बदला, तो मुसलमान हजाम हो गया। गांवों में देखिये, मुसलमान हजाम, लोहार, तेली, धुनिया, धोबी और यहां तक कि राजपूत भी हैं। उनका सिर्फ धर्म बदला है जातियां नहीं। जिन लोगों में आज दलित प्रेम जोर मार रहा है वे क्या बताएँगे कि उन्होंने अपने धर्म में जाति ख़त्म करने का क्या उपाय किया? प्राचीन भारत में दलित दुर्दशा के विषय में सोचने के पहले एक बार अपने गांव के सिर्फ पचास वर्ष पहले के इतिहास को याद कर लीजिये। दलितों की स्थिति बुरी थी, तो क्या अन्य जातियों की बहुत अच्छी थी? कठे अंवासी बिगहे बोझ (एक कट्ठा में एक मुठा और एक बीघा में एक बोझा, भोजपुरी कहावत) वाले जमाने में जब हर चार पांच साल पर अकाल पड़ते थे, तो क्या सिर्फ एक विशेष जाति के ही लोग दुःख भोगते थे? सत्य यह है कि उस घोर दरिद्रता के काल में सभी दुःख भोग रहे थे। कोई थोडा कम, और कोई थोडा ज्यादा। कल जो हुआ वो हुआ। उसे बदलना हमारे हाथ में नहीं, पर हम चाहें तो हमारा वर्तमान सुधर सकता है। यह युग धार्मिक से ज्यादा आर्थिक आधार पर संचालित होता है। इस युग में जिसके पास पैसा है वही सवर्ण है, और जिसके पास नही है वे दलित हैं। अपने आर्थिक ढांचे को बचाने का प्रयास कीजिये, वैश्वीकरण के इस युग में हमे अपनी सारी दरिद्रता को उखाड़ फेकने में दस साल से अधिक नही लगेगा। अंत में एक उदाहरण देखें, ब्राम्हणों में एक उपजाति होती है महापात्र की। ये लोग मृतक के श्राद्ध में ग्यारहवें दिन खाते हैं। समाज में इन्हें इतना अछूत माना जाता है कि कोई इन्हें अपने शुभ कार्य में नही बुलाता। इनकी शादियां शेष ब्राम्हणों में नही होती। पर इन्होंने कभी अपना पेशा नही छोड़ा। जिस गांव में ये हैं उस गांव के सबसे अमीर लोग ये ही हैं। तो भइया, इस आर्थिक युग में स्वयं को स्थापित करने का प्रयास कीजिये। अरबी पैसे से पेट भर कर, समाज में आग लगाने का प्रयास करने वाले इन चाइना परस्त लोगों के धोखे में न आइये। ये देश जितना चन्द्रगुप्त का है उतना ही चन्द्रगुप्त मौर्य का। जितना महाराणा उदयसिंघ का है, उतना ही पन्ना धाय का। जितना बाबू कुंवर सिंह का है उतना ही बिरसा भगवान का।


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