Thursday, October 13, 2016

महर्षि दयानन्द राजनीति और ब्रह्मनीति के योगपुरुष



महर्षि दयानन्द राजनीति और ब्रह्मनीति के योगपुरुष
            श्रीकृष्ण जैसे महान, आदर्श चरित्रधारी सच्चे नेता ने भारत के उद्धार के लिए यत्न किया। महाभारत राज्य (भारत एवं भारत से बाहर भारतीय राज्य) के पुनरुद्धार के लिए महान् यत्न किया। सफलता भी मिली। एक बार नहीं दो बार मिली। एक तो राजसूययज्ञ के समय, लेकिन युधिष्ठिर के एक दिन के जुए के लेख ने सब चौपट कर दिया।फिर महाभारत युद्ध हुआ और महाभारत राज्य की स्थापना हुई। श्रीकृष्ण महाराज की आँख बन्द हुई और यह विशाल भवन फिर भूमि पर गिर पड़ा। दूसरी बार चाणक्य और चन्द्रगुप्त ने मिलकर उसी महाभारत राज्य के लिए प्रयत्न किया। इस बार महाभारत राज्य तो नहीं बन पाया,किन्तु भारत राज्य फिर बन गया,चाणक्य की आँख बन्द हुई और यह विशाल भारत मन्दिर फिर भूमि पर गिर पड़ा। तीसरी बार छत्रपति शिवाजी ने फिर उस महाभारत राज्य के पुनरुद्धार के लिए यत्न किया। इस बार महाभारत राज्य तो नहीं,किन्तु महाराष्ट्र राज्य तो बन ही गया।
परन्तु शिवाजी की आँखें बन्द हुई और यह पवित्र महाराष्ट्र मन्दिर फिर भूमि पर गिर पड़ा।
ऐसा क्यों हुआ?वेद कहता है- *यत्र ब्रह्म च क्षत्रञ्च सम्यञ्चौ चरतः सह।* *तं लोकं पुण्यं प्रज्ञेषं यत्र देवाः सहाग्निना।।-(यजु० २०/२५)*
अर्थ:-हे प्रभो ! जहाँ ब्रह्मशक्ति और क्षात्रशक्ति परस्पर सहयोग से काम करती हों, मुझे उस पवित्र देश में जन्म लेना अथवा उस पवित्र देश से मेरा प्रगाढ़ परिचय करा देना, जहाँ देवों का लोक-कल्याण-भावनारुप यज्ञाग्नि के साथ पूर्ण सहयोग हो। ब्रह्मनीति का सूत्र है-यथा प्रजा तथा राजा। ब्राह्मण अपने विद्याबल,तपोबल,चरित्रबल से ऐसी प्रजा उत्पन्न करता है, जो ठीक राजा चुनती है और दुष्ट राजा को अपनी जागरूकता से नष्ट कर देती है।
राजनीति ऐसी सुन्दर व्यवस्था उत्पन्न करती है कि -ब्राह्मजन उत्तम राजनीति का पूर्ण विकास करने में समर्थ होते हैं।
श्रीकृष्ण सच्चे क्षत्रिय थे, राजनीति ने अपना पूर्ण चमत्कार दिखाया, ब्रह्मनीति ने साथ नहीं दिया, विदुर शूद्र ही रहे, दुर्योधन क्षत्रिय कहलाया, कृष्ण चिल्लाते रह गये-
*चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।।*
परन्तु करते क्या? यह काम तो ब्राह्मणों का था। ब्रह्मनीति प्रगाढ़ निद्रा में पड़ी थी।
चाणक्य और चन्द्रगुप्त मिले।राजनीति और कूटनीति मिलकर चली,परन्तु ब्रह्मनीति चुप थी।चन्द्रगुप्त भी विफल ही रहा।
शिवाजी ने राजनीति का चमत्कार दिखाया,परन्तु ब्रह्मनीति फिर भी चुप थी अथवा उल्टी बह रही थी।
शिवाजी को यज्ञोपवीत देने का विरोध हुआ। किसलिए? शिवाजी शूद्र है।
*कलौ वा अंतयोः स्थितिः।*
कलियुग में दो ही वर्ण हैं, एक ब्राह्मण, दूसरा शूद्र। भला हो बेचारे जागा भट्ट का, शिवाजी विधिपूर्वक छत्रपति तो बन गये और यदि कहीं शंकराचार्य का सब चलता तो-
*तस्या हि शूद्रस्य वेद उपशृण्वतस्त्रपुजतुभ्यां* *श्रोत्रपरिपूरणम्,उच्चारणे जिह्वाच्छेदो धारणे शरीरभेदः ।-(ब्रह्मसूत्र  शंकरभाष्य अपशूद्राधिकरण)* शूद्र यदि वेद का मन्त्र सुन ले तो उसके कान में लाख या सीसा पिघलाकर भर दो, वेद का मन्त्र उच्चारण करे तो जीभ काट दो, वेद की पुस्तक उठाकर चले तो हाथ काट दो,यह नियम लागू होता।
बेचारी अकेली राजनीति क्या करती? पवित्र महाराष्ट्र मन्दिर फिर भूमि पर गिर पड़ा।
अन्त में एक सच्चे ब्राह्मण ने वेदघोष सुनाया-
*यथेमां वाचं कल्याणीमावादानि जनेभ्यः।* *ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय च।।-(यजु० २६/२)*
अर्थ:-प्रभु कहते हैं-हे मेरे भक्तो ! तुम ऐसा मार्ग पकड़ो जिससे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तुम्हारे अपने और तुम्हारे पराये सब तक पहुँचे।
दयानन्द के रूप में ब्रह्मनीति ने पग उठाया। प्रजा जागी। इस बार तो भारत भी मिला। खण्ड भारत मिला,परन्तु यह आन्दोलन प्रजा का आन्दोलन है। अब राजनीति की प्रतिक्षा है।जिस दिन इस ब्रह्मनीति में राजनीति आ मिली उस दिन खण्ड भारत फिर से भारत और भारत से फिर महाभारत राज्य बनकर रहेगा,परन्तु यह विशाल साम्राज्य शस्त्रबल से नहीं शास्त्रबल से फैल सकेगा,इसलिए इसमें रुधिर प्रवाह नहीं,किन्तु ज्ञानगंगा का प्रवाह होगा। यह कार्य चिर साध्य है,परन्तु चिरजीवी भी है।
मानव राष्ट्र के भक्तो ! राजनीति को ब्रह्मनीति में मिला दो, देखो कैसा दृढ़ भवन बनता है, जिसे भूकम्प हिला न सके और आग जला न सके।
कोई आज सुने या न सुने सच्चा मार्ग यही है और केवल यही है। उपसर्ग छोड़ो और इस मार्ग को अपनाओ।
            महर्षि दयानन्द ने क्या दिया? औजर क्या क्या लिया? इस विषय में जितना भी लिखा जाए थोड़ा है। तथापि हम संक्षेप मेँ ठोस सामग्री देने का प्रयास करेगेँ। आधुनिक भारत के एक प्रसिद्ध इतिहासकार श्री ईश्वरीप्रसाद ने 'सरस्वती' मासिक के सन् 1929 के एक अंक मेँ अपने एक पठनीय लेख मेँ लिखा था- "हिन्दूसमाज मेँ स्वामीजी ने हलचल मचा दी। अदम्य निर्भीकता के साथ उन्होँने स्वेच्छाचारी, निरंकुश "पोपोँ" का सामना किया और काशी के प्रसिद्ध शास्त्रार्थ मेँ अपनी विद्वता का सिक्का जमा दिया। आर्यसमाज के विस्तृत कार्यक्रम ने हिन्दू जाति की मृत हड्डियोँ मेँ फिर से जान डाल दी। राष्ट्रीय आदोँलन का अभी नामो-निशान नहीँ था। अंग्रेजी शासन के विरूद्ध किसी को ताब न थी कि जबान निकाले। आजकल के युवकोँ के लिए उस परिस्थिति को समझना दुष्कर है।" यशस्वी इतिहासकार श्रीयुत काशीप्रसाद जायसवालजी ने लिखा है- The Sanyasi Dayanand gave freedom to the soul of the Hindus, as did Luther unto the Europeans" अर्थात् संन्यासी दयानन्द ने हिन्दुओँ की आत्मा को ऐसे ही स्वतन्त्र करवाया जैसे योरूपियन लोगोँ को लूथर ने । ऋषि दयानन्द ने देखा कि भारतीय साधुओँ को केवल अपने मोक्ष की ही चिन्ता है। वे संसार से उदासीन रहने को ही वैराग्य, भक्ति की पराकाष्ठा व सन्तपना जानते व मानते थे-- 'कोई नृप होय हमेँ क्या हानि' कबीरा तेरी झोपड़ी गल कटियन के पास। जो करगने सो भरन गे तू क्योँ भयो उदास।। जहाँ देश के विचारकोँ की, महात्माओँ की ऐसी सोच हो वहाँ देशोन्नति व विकास कैसे सम्भव है ? ऋषि का घोष था कि मुझे अपनी मुक्ति की चिन्ता नहीँ, मैँ करोड़ोँ देशवासियोँ के बन्धन काटने आया हूँ। ऋषि की इस सोच ने युग बदल दिया । स्वामी अनुभवानन्द जी आर्य संन्यासी को जलियाँवाला हत्याकाण्ड मेँ फांसी का दण्ड सुनाया गया। स्वामी श्रद्धानंद ने संगीनोँ से सीना अड़ाकर शूरता का गान किया। स्वामी स्वतन्त्रानन्द ने सिर पर कुल्हाड़े के वार सहे। परहित जीने-मरने का पाठ आर्योँ ने ऋषि का अनुसरण करके सीखा-- "पराई आग मेँ जलना मरीजोँ की दवा होना। कोई सीखे दयानन्द से धर्म पर जाँ फिदा करना।।" महर्षि दयानन्द ने धर्म को कर्म का रूप दिया। ईश्वर आत्मबल का देनेवाला है यह कहने वाले तो बहुत हैँ, पर ऋषि ने इस आत्मबल का प्ररिचय पग पग पर दिया । उनके शिष्योँ प॰ लेखराम, स्वामी श्रद्धानंद, महात्मा नारायण स्वामी ने अपने आचार्य से ये गुण ग्रहण कर नया इतिहास लिख दिया। कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व उपकुलपति प्रख्यात इतिहासकार सर यदुनाथ सरकार ने ऋषि दयानन्द की देन या उपलब्धि पर बड़े सुन्दर शब्दोँ मेँ लिखा था- "Today Hinduism calls upon it as its bestally. Today Hinduism has paid the Arya samaj the highest tribute, that of imitation by stealing its programme." अर्थात् आज हिन्दू समाज अपने आपको आर्यसमाज का सर्वोत्तम सहयोगी कहता। आज हिन्दू समाज ने आर्यसमाज के कार्यक्रम व मान्यताओँ का अनुकरण करके इसके कार्यक्रम को चुराकर इसे सबसे उत्तम श्रद्धा पुष्प अर्पित किया है । क्या ये सत्य नही है? आज अस्पृश्यता का समर्थन करने का साहस किसे है? आज बालविवाह, अनमेल विवाह का पोषक और विधवा विवाह का विरोधी कौन है ? मूर्ति मेँ भगवान् है यह तो कहते हैँ, मूर्ति भगवान है, यह सिद्ध करने वाला कौन है ? सागर पार जाना पाप नहीँ रहा। यह उस ऋषि का प्रताप है। मायावादी हिन्दू कहते चले आ रहे थे कि सब कुछ ब्रह्मा ही ब्रह्मा है, जगत मिथ्या है, यह सब जो दिखता है स्वप्नवत है | स्वप्न तो सोने वालों को आते हैं | सोने वाले संसार का क्या भला कार सकते हैं ? जगत को मिथ्या मानने वालों से इसके विकास, उन्नत्ति व सुधार का प्रश्न ही नही उठता | परन्तु-- महर्षि दयानन्द ने यथार्थ दर्शन दिया- "He has given us a bold philosophy of life. A philosophy of thereality of God, reality of man and the reality of the universe in which man has to live in. अर्थात् ऋषि ने हमेँ वीरोचित दर्शन दिया। ईश्वर की वास्तविकता (सत्ता) का दर्शन दिया, उसने मनुष्य की सत्ता की सच्चाई तथा उस विश्व की वास्तविकता का दर्शन दिया जिसमेँ मनुष्य को रहना है।" "His is a philosophy of bold actions and not of idle musings." उस ऋषि का दर्शन साहसिक कार्योँ का दर्शन है न कि निठल्ले चिन्तन का। निर्भीक सत्यवाणी- अंग्रेजी राज आया। 'अंग्रेजी राज की बरकतेँ' (Blessings) यह पाठ स्कूलोँ, कालेजोँ मेँ पढ़ाया जाता था। गांधी जैसे लोग प्रथम विश्वयुद्ध तक अंग्रेज जाति के न्याय, न्यायपालिका की भूरि-भूरि प्रशंसा किया करते थे। वहीँ ऋषि दयानन्द ने 'सत्यार्थप्रकाश' के तेहरवेँ समुल्लास मेँ अंग्रेजी न्यायपालिका की निष्पक्षता व न्याय की धज्जियाँ उड़ाकर रख दीँ। महर्षि सन् 1877 मेँ जालन्धर पधारे तब आपने एक दिन कहा- "आजकल के राजा न्याय नहीँ प्रत्युत अन्याय करते हैँ। अंग्रेज लोग अपने मनुष्योँ पर अत्यधिक कृपादृष्टि रखते हैँ। यदि कोई गोरा अथवा अंग्रेज किसी देशी की हत्या कर दे तथा वह (हत्यारा) न्यायालय मेँ कह दे कि मैँने मद्यपान कर रखा था तो उसको छोड़ देते हैँ।" राजा राममोहनराय से लेकर स्वामी विवेकानन्द तक कोई भी सुधारक, विचारक, महात्मा इस निर्भीकता का परिचय न दे सका, ऋषि की इसी निर्भीकता ने बिस्मिल, रोशन, अशफाक, भगत सिँह जैसे प्राणवीरोँ की छातियोँ को गर्मा दिया। ऋषि दयानन्द की विश्व को देन समझने के लिए पाठक यह ध्यान देँ कि पूरे विश्व मेँ यह प्रचार होता रहा है कि अल्लाह या God ने हो जा कहा और सब कुछ हो गया। सात दिन मेँ सृष्टि बन गयी। सात दिन मेँ तो टमाटर, मेथी, प्याज, मिर्ची आदि नही उगते। माता के गर्भ से बालक को जन्मने मेँ भी नौ माह लगते हैँ। सृष्टि का सृजन सात दिन मेँ हो गया- कितना हास्यास्पद कथन है ! लेकिन आज पूरा विश्व ऋषि की वाणी के साथ मानता है- 'Matter can neither be created nor it can be destroyed' अर्तात् प्रकृति न उत्पन्न की जा सकती है और न ही नष्ट की जा सकती है। यह अनादि अनंत है। महर्षि दयानन्द ने जो किया व जो दिया वह सबके सामने हैँ और सबको मान्य हो रहा है। इतिहासकार श्री काशीप्रसाद जयसवाल की ये पंक्तियाँ इतिहास का निचोड़ हैँ- "In nineteenth century there was nowhere else such a powerfullteacher of monotheism, such a preacher of the unity of man, such a successful crusader against capitalism in spirituality" अर्थात् उन्नीसवीँ शताब्दी मेँ धराधाम पर एकेश्वरवाद का ऐसा महाप्रतापी सन्देशवाहक गुरू कोई नहीँ हुआ, मानवीय एकता का ऐसा प्रचारक तथा आध्यात्मक जगत् मेँ पूंजीवाद के विरूद्ध लड़ने वाला कोई ऐसा धर्मयोद्धा नहीँ हुआ (जैसा कि स्वामी दयानन्द था)

(Our purpose to write this blog is not to hurt feelings of any individual, but only to spread the truth)
(इस ब्लॉग का उद्देश्य किसी की भावनाओ को ठेस न पंहुचा कर अपितु सत्य को उजागर करना है जिन मित्रों को इस लेख में थोडा सा भी संदेह हो, अथवा अगर आपको ऊँगली उठानी है तो प्रमाण के साथ उत्तर दे कर ऊँगली उठाये।)


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