बौद्ध और जैनधर्म: वैदिक दृष्टिकोण
जैन ग्रन्थों के गपौडे - सत्यार्थप्रकाश १२ वां समु.
अब जैनियों की असम्भव कथा लिखते हैं, सुनना चाहिये और यह भी ध्यान में रखना कि अपने हाथ से साढ़े तीन हाथ का धनुष होता है और काल की संख्या जैसी पूर्व लिख आये हैं वैसी ही समझना। रत्नसार भाग 1। पृष्ठ 166-167 तक में लिखा है—
(1) ऋषभदेव का शरीर 500 पांच सौ धनुष् लम्बा और 8400000 (चौरासी लाख) पूर्व का आयु।
(2) अजितनाथ का 450 धनुष् परिमाण का शरीर और 7200000 (बहत्तर लाख) पूर्व वर्ष का आयु।
(3) सम्भवनाथ का शरीर 400 चार सौ धनुष् परिमाण शरीर और 6000000 (साठ लाख) पूर्व वर्ष का आयु।
(4) अभिनन्दन का 350 साढ़े तीन सौ धनुष् का शरीर और 5000000 (पचास लाख) पूर्व वर्ष का आयु।
(5) सुमतिनाथ का 300 धनुष् परिमाण का शरीर और 4000000 (चालीस लाख) पूर्व वर्ष का आयु।
(6) पद्मप्रभ का 140 धनुष् का शरीर और परिमाण 3000000 (तीस लाख) पूर्व वर्ष का आयु।
(7) पार्श्वनाथ का 200 धनुष् का शरीर और 2000000 (बीस लाख) पूर्व वर्ष का आयु।
(8) चन्द्रप्रभ का 150 धनुष् परिमाण का शरीर और 1000000 (दस लाख) पूर्व वर्ष का आयु।
(9) सुविधिनाथ का 100 सौ धनुष् का शरीर और 200000 (दो लाख) पूर्व वर्ष का आयु।
(10) शीतलनाथ का 90 नब्बे धनुष् का शरीर और 100000 (एक लाख) पूर्व वर्ष का आयु।
(11) श्रेयांसनाथ का 80 धनुष् का शरीर और 8400000 (चौरासी लाख) वर्ष का आयु।
(12) वासुपूज्य स्वामी का 70 धनुष् का शरीर और 7200000 (बहत्तर लाख) वर्ष का आयु।
(13) विमलनाथ का 60 धनुष् का शरीर और 6000000 (साठ लाख) वर्षों का आयु।
(14) अनन्तनाथ का 50 धनुष् का शरीर और 3000000 (तीस लाख) वर्षों का आयु।
(15) धर्मनाथ का 45 धनुष् का शरीर और 1000000 (दस लाख) वर्षों का आयु।
(16) शान्तिनाथ का 40 धनुषों का शरीर और 100000 (एक लाख) वर्ष का आयु।
(17) कुन्थुनाथ का 35 धनुष् का शरीर और 95000 (पचानवें सहस्र) वर्षों का आयु।
(18) अमरनाथ का 30 धनुषों का शरीर और 84000 (चौरासी सहस्र) वर्षों का आयु।
(19) मल्लीनाथ का 25 धनुषों का शरीर और 55000 (पचपन सहस्र) वर्षों का आयु।
(20) मुनि सुव्रत का 20 धनुषों का शरीर और 30000 (तीस सहस्र) वर्षों का आयु।
(21) नमिनाथ का 14 धनुषों का शरीर और 10000 (दश सहस्र) वर्षों का आयु।
(22) नेमिनाथ का 10 धनुषों का शरीर और 10000 (दश सहस्र) वर्ष का आयु।
(23) पार्श्वनाथ 9 हाथ का शरीर और 100 (सौ) वर्ष का आयु।
(24) महावीर स्वामी का 7 हाथ का शरीर और 72 वर्षों की आयु।
—ये चौबीस तीर्थङ्कर जैनियों के मत चलाने वाले आचार्य और गुरु हैं। इन्हीं को जैनी लोग परमेश्वर मानते हैं और ये सब मोक्ष को गये हैं। इसमें बुद्धिमान् लोग विचार लेवें कि इतने बड़े शरीर और इतना आयु मनुष्य देहका होना कभी सम्भव है? इस भूगोल में बहुत ही थोड़े मनुष्य वस सकते हैं। इन्हीं जैनियों के गपोड़े लेकर जो पुराणियों ने एक लाख, दश सहस्र और एक सहस्र वर्ष का आयु लिखा सो भी सम्भव नहीं हो सकता तो जैनियों का कथन सम्भवकैसे हो सकता है
(Our purpose to write this blog is not to hurt feelings of any individual, but only to spread the truth)
(इस ब्लॉग का उद्देश्य किसी की भावनाओ को ठेस न पंहुचा कर अपितु सत्य को उजागर करना है। जिन मित्रों को इस लेख में थोडा सा भी संदेह हो, अथवा अगर आपको ऊँगली उठानी है तो प्रमाण के साथ उत्तर दे कर ऊँगली उठाये।)
बौद्ध और जैनधर्म का मिथ्या अहिंसावाद
बौद्ध और जैन मतावलम्बियों का मिथ्या अहिंसावाद भारत की अवनति और विनाश का तीसरा प्रमुख कारण है।
वैदिक साहित्य में अहिंसा का स्थान महत्वपूर्ण है।योगदर्शनकार महर्षि पतंजलि ने यमों में अहिंसा को सर्वप्रथम स्थान प्रदान किया है,क्योंकि अहिंसा की सिद्धि के बिना उपासना सफल नहीं हो सकती।महाभारतकार। व्यास ने तो यहाँ तक कह दिया है-
*अहिंसा परमो धर्मस्तथाहिंसा परमो दमः।*
*अहिंसा परमं दानमहिंसा परमं तपः।।-(महा० अनु० ११६/२८)*
अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा परम संयम है, अहिंसा परम दान है और अहिंसा ही परम तप है।
अहिंसा का अर्थ है-वैरत्याग-मन,वचन और कर्म से किसी भी प्राणी के प्रति वैर की भावना न रखना।
वेद में तो इससे भी ऊंची भावना है।वेद भक्त की तो यह प्रार्थना और कामना रहती है-
*मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे।।-(यजु० ३६/१८)*
मैं संसार के सभी प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखूँ।
परन्तु यहाँ एक बात स्मरण रखने योग्य है।यह तो सामान्य उपदेश है।जिस समय गुण्डे और अत्याचारी अबलाओं पर अत्याचार कर रहे हों,जिस समय बलवान् निर्बलों को पीड़ा दे रहे हों,जिस समय शत्रु हमारे राष्ट्र पर आक्रमण कर रहे हों तब हम क्या करें?क्या आततायी,गुण्ड़ों और शत्रुओं से मार खाते हुए,उनसे पिटते हुए 'अहिंसा परमो धर्म' की दुहाई देते रहें?नहीं ,कदापि नहीं।
शत्रुओं से हमारा व्यवहार कैसा हो? वेद का स्पष्ट आदेश है-
*उत्तिष्ठत सं नह्याध्वमुदाराः केतुभिः सह।*
*सर्पा इतरजना रक्षांस्यमित्राननु धावत।।-(अथर्व० ११/१०/१)*
अर्थ:- हे वीर योद्धाओ! आप अपने झण्डों को लेकर उठ खड़े होओ और कमर कसकर तैयार हो जाओ।जो सर्पों के समान कुटिल हैं,मानव-समाज के शत्रु हैं,राक्षस हैं,ऐसे शत्रुओं पर धावा बोल दो।
वेद में राजा के लिए आज्ञा है-
*इन्द्र जहि पुमांसं यातधानमुत स्त्रियं मायया शाशदानाम्।*
*विग्रीवासो मूरदेवा ऋदन्तु मा ते दृशन्त्सूर्यमुच्चरन्तम्।।-(अथर्व० ८/४/२४)*
*विग्रीवासो मूरदेवा ऋदन्तु मा ते दृशन्त्सूर्यमुच्चरन्तम्।।-(अथर्व० ८/४/२४)*
अर्थ:-हे इन्द्र ! देश के शासक, राजा वा नेता !डाकु, लुटेरे और हिंसकों की गर्दनों को तलवार से काटकर धड़ से अलग कर दे।ऐसे आततायी चाहे वे स्त्रियाँ हों या पुरुष सबके लिए एक ही दण्ड़ है। दुष्टों के मारने में विलम्ब नहीं करना चाहिये।उनका सफाया इतनी शीघ्र कर देना चाहिये कि वे दूसरे दिन सूर्य का दर्शन न कर सकें।
इसी प्रकार एक अन्य स्थान पर कहा है-
*वि न इन्द्र मृधो जहि नीचा यच्छ पृतन्यतः।*
*अधमं गमया तमो यो अस्माँ अभिदासति।।-(अथर्व० १/२१/२)*
अर्थ:-हे इन्द्र! राजन ! सेना लेकर हम पर आक्रमण करने वाले शत्रुओं का नाश कर। हमारे शत्रुओं को नीचा दिखा।जो हमारा विनाश करना चाहता है,उसे घोर अन्धकार में धकेल दे।
इस प्रकार के शतशः वेदमन्त्र उपस्थित किये जा सकते हैं,परन्तु विस्तार भय से अधिक नहीं लिखते।
वेद की इन्हीं भावनाओं और आदेशों के अनुसार महर्षि मनु ने भी कहा है-
*नाततायी वधे दोषः।।-(मनु० ८/३५१)*
अर्थात् आततायी का वध करने में कोई दोष नहीं है। इतना ही नहीं मनुजी ने तो यहाँ तक लिख दिया है-
*आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्।।-(मनु० ८/३५०)*
आततायी को बिना विचारे मार देना चाहिये।
यह है अहिंसा और हिंसा के सम्बन्ध में वैदिक विचारधारा। जो इस विचारधारा पर आचरण करते हैं वे फूलते-फलते हैं, जीवन में सुख पाते हैं और सर्वविध उन्नति करते हैं। इस विचारधारा को न अपनाकर, इसके प्रतिकूल चलने पर हानि उठानी पड़ती है। हमारा प्राचीन इतिहास इस बात का साक्षी है।
मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने वैदिक हिंसा के आदर्श को सम्मुख रखकर गौ और ब्राह्मण के कल्याण के लिए तथा देश की रक्षार्थ ताड़का का वध किया। मारीच और सुबाहु को मारा और अन्त में रावण का काम भी तमाम कर दिया।परिणाम क्या हुआ -ऋषियों की रक्षा और रामराज्य की स्थापना। योगेश्वर श्रीकृष्ण ने तो वैदिक हिंसा के आदर्श को सम्मुख रखकर शिशुपाल का वध किया, हयग्रीव और निशुम्भ को नष्ट किया तथा जरासन्ध, कर्ण और दुर्योधन को मरवाया। परिणाम क्या हुआ? भारतवर्ष में सहस्रों वर्षों तक अखण्ड़ चक्रवर्ती साम्राज्य की स्थापना हुई।
अब केवल अहिंसा अपनाने के जो भयंकर दुष्परिणाम हुए उनका भी अवलोकन कर लीजिए।भारतवर्ष में महात्माबुद्ध और वर्धमान महावीर दो ऐसे महापुरुष उत्पन्न हुए जिन्होंने केवल अहिंसा को ही परम धर्म माना। इन दोंनो महापुरुषों ने अहिंसा पर बड़ा बल दिया। दोंनो ही महानुभावों ने युद्ध का घोर विरोध किया। उनका कहना था कि "अपनी ही अन्तरात्मा के साथ युद्ध करो ,बाहर के युद्ध से क्या लाभ?"
उच्चावस्था में पहुंचा हुआ योगी, साधु या महात्मा यदि अपने जीवन में केवल अहिंसा को अपनाए तो जगत् की कोई हानि नहीं। महात्मा बुद्ध और श्री महावीर भी अहिंसा को यदि अपने तक ही सीमित रखते तो देश और जाति की कोई हानि नहीं होती, परन्तु उन्होंने प्रत्येक अवस्था में और प्रत्येक मनुष्य में सामूहिक रुप में अहिंसा की भावना उत्पन्न की, जिसका परिणाम यह हुआ कि करोड़ों क्षत्रीय वीर केवल अहिंसा का आश्रय लेकर बौद्ध भिक्षुक और जैन श्रावक बनकर कायर, डरपोक, भीरु और नपुंसक बन गये।
सन् 630 में जब प्रसिद्ध चीनी यात्रि ह्वैन्तसांग भारत में आया तो उसने लिखा कि कप्पिश (काफिरस्तान) सारा बौद्ध हो गया था। लम्पाक और नगर (जलालाबाद) में कुछ हिन्दुओं को छोड़कर शेष सारा काबुल बौद्ध हो गयाथा। बंगाल और बिहार तो बौद्धों के प्रमुख गढ़ बन गये थे। बंगाल और बिहार में जैन और बौद्ध मत का हिंसा के विरूद्ध इतना प्रचार था कि बंगाल और बिहार केनिवासी सेना में भरती नहीं होते थे। इस झूठी अहिंसा का परिणाम यह हुआ कि लोगों के जीवन में शत्रुओं के दमन की, देश, जाति और धर्म की रक्षा की भावना नष्ट हो गयी। परिणामस्वरुप देश परतन्त्र और पराधीन हुआ।
इस्लामी आक्रमण आरम्भ हुए।काबुल जो सारा का सारा बौद्ध बन गया था शत्रुओं के आक्रमण का प्रतिशोध न कर सका। मार खाते हुए, पिटते और पददलित होते हुए सारे बौद्ध मुहम्मदी मत में प्रविष्ट हो गये।
जब मोहम्मद बिन कासिम ने सिन्ध पर आक्रमण कर उसे अपने अधिकार में ले लिया तो वहाँ के बौद्ध भिक्षु धीरे-धीरे मुसलमान बन गये। शिवि (जो अब पाकिस्तान में है और जिसे अब सिबी कहते हैं) पर जब कासिम ने आक्रमण किया तो वहाँ का शूरवीर क्षत्रीय राजा शत्रुओं का मुकाबला करने के लिए किले पर खड़ा हो गया। नागरिकों ने, जो प्रायः बौद्ध और जैन थे, राजा से प्रार्थना की कि युद्ध करना और शत्रुओं को मारना हमारे धर्म के विरुद्ध है। अतः आप युद्ध न करके शत्रु से सन्धि कर लें। जब वीर वत्सराज ने इनका कायरतापूर्ण परामर्शस्वीकार न किया, तो इन्होंने शत्रु को सन्देश भेजा कि यदि तुम बौद्धों को न मारने की प्रतिज्ञा करो तो हम नगर का पिछला द्वार खोल देंगे। कासीम ने स्वीकार कर लिया।बौद्ध-भिक्षुओं ने नगर के पिछले द्वार खोल दिये। कासिम सैंनिकों सहित नगर में प्रविष्ट हो गया।मुसलमान सैनिकों ने थोड़े से बौद्ध-भिक्षुओं को छोड़कर प्रजा को खूब लूटा। अनेक व्यक्तियों को मोत के घाट उतार दिया और शेष सबको दास बना लिया।
(देखिये History of india by C.V. Vaidya)
बिहार में बौद्ध-भिक्षुओं के सैकड़ों विहार (मठ) थे, इस कारण उसका नाम ही 'बिहार' पड़ गया। इस प्रान्त में नालन्दा और विक्रमशिला बौद्ध भिक्षुओं के दो विश्वविद्यालय थे। उनमें लाखों हस्तलिखित एवं बहुमूल्य ग्रन्थ थे और यहाँ सहस्रों बौद्ध भिक्षु शिक्षा प्राप्त करते थे।सन् 1197 में मुहम्मद बिन बख्त्यार खिल्जी ने केवल २०० सैनिक लेकर पहले नालन्दा और फिर विक्रमशिला पर आक्रमण किया। बौद्ध भिक्षुओं को जब आक्रमण का पता लगा तो सहस्रों भिक्षु सिर मुँडाकर, पीले वस्त्र पहनकर, हाथ में माला लिये हुए , 'अहिंसा परमो धर्मः' और 'नमो बुद्धाय'-का जाप करते हुए धर्मान्ध मुसलमानों से प्रार्थना करने लगे कि हम पर दया करो। मुसलमान सैनिकों ने कई सहस्र भिक्षुओं को गाजर-मूली की भाँति काटकर मृत्यु की गोद में सुला दिया।
नालन्दा का हत्याकाण्ड पूर्ण करके ये मुसलमान विक्रमशिला विश्वविद्यालय में पहुंचे। वहाँ भी यही हुआ।वे भिक्षु जप करते रहे और मुसलमान उन्हें तलवार का निशाना बनाते रहे। बौद्ध भिक्षु बिना किसी प्रकार का प्रतिरोध किये सिर झुकाकर कटते रहे। भिक्षुओं को समाप्त कर बख्त्यार खिल्जी ने उन दोनों विश्वविद्यालयों की लाखों बहुमूल्य पुस्तकों को जलाकर भस्म कर दिया.-(देखिये History of india by Elliot)
नालन्दा का हत्याकाण्ड पूर्ण करके ये मुसलमान विक्रमशिला विश्वविद्यालय में पहुंचे। वहाँ भी यही हुआ।वे भिक्षु जप करते रहे और मुसलमान उन्हें तलवार का निशाना बनाते रहे। बौद्ध भिक्षु बिना किसी प्रकार का प्रतिरोध किये सिर झुकाकर कटते रहे। भिक्षुओं को समाप्त कर बख्त्यार खिल्जी ने उन दोनों विश्वविद्यालयों की लाखों बहुमूल्य पुस्तकों को जलाकर भस्म कर दिया.-(देखिये History of india by Elliot)
यह है भीरुता की पराकाष्ठा! शत्रु आक्रमण कर रहा है और बौद्ध भिक्षु सिर झुकाये मर और कट रहे हैं। यदि ये सहस्रों भिक्षु बिना अस्त्र-शस्त्रों के लात और घूँसों से भी शत्रु पर आक्रमण करते, तो 200 मुसलमानों की बोटी भी देखने में नहीं आती। 200 मुसलमानों ने सहस्रों बौद्धों को सदा के लिए भूमि पर सुला दिया। यह है जैन-बौद्धों की झूठी अहिंसा का दुष्परिणाम।
15 अगस्त 1947 को भारत स्वतन्त्र हो गया, भारत को लंगड़ी स्वतन्त्रता मिल गयी।भारत को धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया गया, परन्तु भारत में मुर्दा बौद्धमत को पुनर्जीवित करने के लिए प्रयत्न आरम्भ हुए। हमारे राष्ट्र-ध्वज में अशोक-चक्र को अपनाया गया। अशोक बौद्ध था,यह तो सर्वविदित ही है ।भारतीय संस्कृति और सभ्यता से विमुख पं० जवाहरलाल नेहरुभारत को अवनति के गढ़े में गिराने के लिए जैन और बौद्धों की झूठी अहिंसा, दया और मैत्रीभाव का अन्धानुकरण जीवन भर करते रहे। चीन का उदाहरण हमारे सामने है।
नेहरुजी नरपिशाच चीनी कम्युनिष्टों के प्रति शान्ति और सद्व्यवहार का बर्ताव करते रहे। इतना ही नहीं शान्ति और मैत्री बनाये रखने के लिए उन्होंनेतिब्बत में जो सदा से भारत का अंग रहा है, चीन की प्रभुसत्ता स्वीकार करने तक की भयंकर भूल की। चीन ने धीरे-धीरे हमारी १२,००० वर्गमील भूमि अपने अधिकार में ले ली। नेहरूजी ने वैदिक हिंसा को अपनाकर ऐसे दुष्ट और आततायी का सिर नहीं फोड़ा, अपितु 'शान्ति-शान्ति' ही चिल्लाते रहे। इस शान्ति और सद्भावना का लाभ उठाकर विश्वासघाती चीन ने अक्टूबर सन् 1962 में भारत पर सशस्त्र आक्रमण कर भारत की 22,000 वर्गमील भूमि हथिया ली। सैकड़ों सैनिक मारे गये।
नेहरुजी नरपिशाच चीनी कम्युनिष्टों के प्रति शान्ति और सद्व्यवहार का बर्ताव करते रहे। इतना ही नहीं शान्ति और मैत्री बनाये रखने के लिए उन्होंनेतिब्बत में जो सदा से भारत का अंग रहा है, चीन की प्रभुसत्ता स्वीकार करने तक की भयंकर भूल की। चीन ने धीरे-धीरे हमारी १२,००० वर्गमील भूमि अपने अधिकार में ले ली। नेहरूजी ने वैदिक हिंसा को अपनाकर ऐसे दुष्ट और आततायी का सिर नहीं फोड़ा, अपितु 'शान्ति-शान्ति' ही चिल्लाते रहे। इस शान्ति और सद्भावना का लाभ उठाकर विश्वासघाती चीन ने अक्टूबर सन् 1962 में भारत पर सशस्त्र आक्रमण कर भारत की 22,000 वर्गमील भूमि हथिया ली। सैकड़ों सैनिक मारे गये।
आज पाकिस्तान आये दिन भारत की सीमाओं पर गोली चलाता है।गोली ही नहीं चलाता वह कच्छ में घुस आया है और अब तो उसने कश्मीर में भी घुसपैठ आरम्भ कर दी है, परन्तु भारत के ये कायर, दब्बू और भीरु शासक केवल विरोध-पत्र भेजकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं।
अब तो विरोध-पत्रों से पाकिस्तान की अलमारियाँ भर गयी होंगी, और उनके पास भारत के विरोध-पत्रों को रखने की जगह भी नहीं होगी,अतः विरोध-पत्र न भेजकर अब तो कुछ करने की आवश्यकता है। अब तो गोली का उत्तर गोली से ही देने से देश का कल्याण हो सकता है।
यहाँ हम विवेकानन्द जी के शब्दों में यह कहे बिना नहीं रह सकते-
"अहिंसा परमो धर्मः" बौद्ध धर्म का एक बहुत अच्छा सिद्धान्त है, परन्तु अधिकारी का विचार न करके जबरदस्ती राज्य की शक्ति के बल पर उस मत को सर्वसाधारण पर लादकर बौद्ध धर्म ने देश का सर्वनाश कर दिया है। - विवेकानन्द साहित्य, भाग ६ पृ० १४३
"अहिंसा परमो धर्मः" बौद्ध धर्म का एक बहुत अच्छा सिद्धान्त है, परन्तु अधिकारी का विचार न करके जबरदस्ती राज्य की शक्ति के बल पर उस मत को सर्वसाधारण पर लादकर बौद्ध धर्म ने देश का सर्वनाश कर दिया है। - विवेकानन्द साहित्य, भाग ६ पृ० १४३
जैन और बौद्धों के झूठे अहिंसावाद से देश का सत्यानाश हुआ है, हो रहा है तथा आगे भी होगा, अतः इसे तिलाञ्जलि देकर और वैदिक अहिंसावाद के अपनाने पर ही देश उन्नति के शिखर पर आरुढ़ होगा|
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(इस ब्लॉग का उद्देश्य किसी की भावनाओ को ठेस न पंहुचा कर अपितु सत्य को उजागर करना है। जिन मित्रों को इस लेख में थोडा सा भी संदेह हो, अथवा अगर आपको ऊँगली उठानी है तो प्रमाण के साथ उत्तर दे कर ऊँगली उठाये।)
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