Friday, March 27, 2015

मानव कल्याण के स्वर्णिम सूत्र



मानव कल्याण के स्वर्णिम सूत्र
सत्यार्थ प्रकाश जैसे अनमोल ग्रन्थ के लेखक महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवन समाज, राष्ट्र और सम्पूर्ण मानवता के लिए विशेष प्रेरणादायक है। धार्मिक अन्धविश्वासों, सामाजिक कुरीतियों और राजनैतिक पराधीनता से टूट चुके भारतीय जनमानस में सिंह जैसा साहस और आत्मबल फूंकने वाले पराक्रमी पुरुष 19वीं शताब्दी के मानवतावादी महापु़रुष महर्षि दयानन्द सरस्वती वेद विधा के अनुपम जानकार थे। विश्व कल्याण की भावना से उन्होंने सन 1875 में बम्बई महानगर में आर्य समाज की स्थापना की। आर्य समाज अपने जन्मकाल से ही समाज सुधार के सभी क्षेत्रों में क्रान्तिकारी कार्य करता रहा है। राजनैतिक पराधीनता, धार्मिक अन्धविश्वासों और सभी प्रकार की सामाजिक बुराईयों के विरुद्ध आर्य समाज ने बहुत बडे़ स्तर पर काम किया है। छुआछूत के भेदभाव को मिटाने और स्त्री शिक्षा से लेकर तथाकथित शुद्रों (दलितों) को सामाजिक व धार्मिक अधिकार दिलाने के लिये आर्य समाज के कार्यकर्ताओं ने अमानवीय क्रूर यातनायें सहन की हैं। समाज में  व्याप्त ऐसी कुप्रथाएं कभी भी पूरी तरह समाप्त नहीं होतीं। सत्य, धर्म और वेदविद्या के प्रचार-प्रसार की आवश्यकता हर युग में बनी ही रहती है। समाज -हित की भावना से विचारशील सज्जन ऐसे घातक दोषों व दुराचारों के विरुद्ध संघर्ष करते ही रहते हैं। अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि के करने, सत्य को स्वीकार करने-कराने और असत्य को छोड़ने-छुड़वाने का संकल्प लेकर आर्य समाज आज भी धार्मिक अन्धविश्वासों व सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध अपनी प्रबल आवाज उठाता रहता है।
                आर्य समाज महापु़रूष महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा रचित सत्यार्थ प्रकाश जैसे अनमोल ग्रन्थ के माध्यम से प्रकट की गईं, अपनी जिन मूलभूत मान्यताओं व व्यावहारिक शिक्षाओं को लेकर समाज सुधार का कार्य कर रहा है, वे निम्नलिखित हैं। इन मान्यताओं को आपके सामने रखते हुये हम अपने विश्वकल्याण के मानवीय अभियान में आपका सक्रिय सहयोग व समर्थन चाहते हैं।-
ईश्वर
1 ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरुप, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनादि, अनन्त, निर्विकार, सर्वव्यापक, अनुपम, सर्वाधार और श्रृष्टिकर्ता आदि गुणों से युक्त है। एकमात्र उसी की उपासना करनी चाहिए।
2. ईश्वर कभी सूअर, कच्छप, मछली व मनुष्य आदि का शरीर धारण कर अवतार नहीं लेता, इसलिए उसकी मूर्ति नहीं हो सकती। ईश्वर के स्थान पर कल्पित देवी-देवताओं एवं ऐतिहासिक महापुरुषों की मूर्तियों में प्राण प्रतिष्ठा करना, उन्हें खिलाना-पिलाना, झूला-झुलाना, पंखे झलना, धूप-दीप दिखाना तथा सुलाना-जगाना अन्धविश्वास एवं अवैज्ञानिक हैं।
3. ईश्वर, जीव और प्रकृति तीनों तत्व अनादि हैं। शंकराचार्य का जीव ब्रह्म एकता (जीव को ईश्वर का अंश मानना) का सिद्वांत तर्कहीन है। यदि हम ही ब्र्रह्म हैं, तो उपासना किसकी? हमें अज्ञान और दुःख कहां से आया और दुःख में आश्रय किसका?

वेद
4. वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद ईश्वर का दिया हुआ ज्ञान है, इसलिये वेद की समस्त शिक्षायें, व्यावहारिक, वैज्ञानिक एवं श्रष्टि के नियमों के अनुकूल हैं। अतः वेद स्वतः प्रमाण हैं।
5. संसार के सभी स्त्री-पुरुषों को समान रूप से वेद पढ़ने-पढ़ाने का अधिकार है। मघ्यकालीन पौराणिक ग्रन्थों एवं परम्परा में स्त्री और शूद्र को वेदाध्ययन से वंचित करना हमारे सामाजिक पतन का मूल कारण है। आज भी कुछ शंकराचार्य एवं धर्माचार्य ऐसी आवाज रह-रह कर उठाते हैं, उनको इसका उचित उत्तर दिया जाता रहा है और आगे भी दिया जाना चाहिये।
6. मध्यकालीन वेद भाष्यकारों - उव्वट, महीधर और सायण आदि द्वारा वेद मन्त्रों का पशुहिंसा, श्राद्ध और अश्लीलता परक व्याख्यान तथा पाष्चात्य भाष्यकारों द्वारा वेद को गडरियों के गीत बताना एवं उनमें लौकिक इतिहास सिद्ध करना दुराग्रह मात्र है, इसमें कोई सच्चाई नहीं।
पंच महायज्ञ
7. प्रत्येक गृहस्थ को यथा सम्भव प्रतिदिन निम्न पांच यज्ञ, उत्तम कार्य करने चाहिएं-
ब्रह्मयज्ञ- अर्थात् निराकार ईश्वर के गुणों का ध्यान करते हुये वेदशास्त्रादि का स्वाध्याय व संध्योपासना।
देवयज्ञ- (हवन) अर्थात् देवपूजा, संगतिकरण एवं दान।
पितृयज्ञ- अर्थात् माता-पिता, आचार्यों की श्रद्धापूर्वक सेवा-सत्कार।
अतिथि यज्ञ- सदाचारी, परोपकारी, धर्मात्मा विद्वानों की सेवा व सहयोग के साथ उनसे सत्योपदेष प्राप्त करना।
बलिवैष्वदेव यज्ञ- अर्थात पशु-पक्षियों के लिए अन्न-पानी का प्रबंध।
गुरु और गुरुडम
8. जीवन को संस्कारित करने में गुरु का महत्वपूर्ण स्थान है। अतः गुरु के प्रति श्रद्धा भाव रखना उचित है। लेकिन गुरु को अलौकिक, दिव्य शक्ति से युक्त मानकर उससे नामदान लेना, उसे भगवान या उसका विशेषदूत मानकर उसकी या उसके चित्र की पूजा करना, उसके दर्शन या गुरुनाम का कीर्तन करने मात्र से सब दुःखों और पापों से मुक्ति मानना आदि गुरुडम की विषबेल है, अतः इसका परित्याग करना चाहिए।
चमत्कार
9. दुनिया में चमत्कार कुछ भी नहीं है। हाथ घुमाकर चैन, लाकेट बनाना, एवं भभूति देकर रोगों को ठीक करने का दावा करने वाले क्या उसी चमत्कार से रेल के इन्जन चला अथवा बड़े-बड़े भवन बना सकते हैं? या कैंसर, हृदय तथा मस्तिष्क के रोगों को बिना ओपरेशन ठीक कर सकते हैं? यदि वे ऐसा कर सकते हैं, तो उन्होंने अपने आश्रमों में इन रोगों के उपचार के लिए बड़े-बडे़ अस्पताल क्यों बना रखे हैं? वे अपनी चमत्कार विद्या से देश के करोड़ों अभावग्रस्त लोगों के दुःख-दर्द दूर क्यों नहीं कर देते? असल में चमत्कार एक मदारीपना है, जो धर्म की आड़ में जनता के शोषण का घटिया तरीका है।
धर्म
10. धर्म वृतिमूलक-आचरणपरक है। दस गुणों धैर्य, क्षमा, दम, अस्तेय (चोरी न करना), शौच (स्वच्छता), इन्द्रियनिग्रह, धी (विवेकयुक्त बुद्वि), विद्या, सत्य एवं अक्रोध से युक्त जीवन ही धार्मिक जीवन है। अपने पारिवारिक, सामाजिक व राष्ट्रीय कर्तव्यों का पालन करना धर्म है। केवल कर्मकाण्ड अर्थात् शंख, टल्ली, घण्टे बजाना, व्रत उपवास करना, तिलक, कण्ठी धारण करना, माला जपना तथा पुण्य प्राप्ति के लिये तीर्थाटन, अथवा दिखावे के लिए संध्या-यज्ञ करना आदि का धर्म से कुछ भी लेना-देना नहीं है।
तीर्थ
11. जिससे दुःख सागर से पार उतरें, अर्थात् जो सत्य बोलना, विद्या, सत्संग, योगाभ्यास, पुरुषार्थ और विद्यादान आदि शुभ कर्म हैं, वे ही तीर्थ हैं।
12. सूर्यग्रहण या किसी अन्य खास अवसर पर हरिद्वार, प्रयाग, काशी, कुरुक्षेत्र आदि जाकर नदी या सरोवर में स्नानादि करने से अथवा कावड़ ले आने से व्यक्ति पापकर्मों से छूट जाएगा, ऐसा मानना घोर अज्ञान है।
कर्मफल
13. हर व्यक्ति को अपने किए शुभ-अशुभ कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है। किसी भी प्रकार का कर्मकाण्ड पापकर्मो के फल को परिवर्तित नहीं कर सकता, अतः इस भावना से किए या कराए जाने वाले सभी प्रकार के कर्मकाण्ड, अज्ञान, पाखण्ड, एवं ठगी के साधन हैं।
श्राद्ध
14. ईश्वरोपासना, स्वाध्याय एवं सदाचरण करते हुए जीवित माता-पिता, गुरुओं और वृद्धों की सेवा व सम्मान करना ही श्राद्ध है। मरे हुए लोगों के नाम पर ब्राह्मणों को भोजन करा-दान-दक्षिणा देना या स्थान विशेष पर जाकर पिण्डदान, गोदान आदि करने से पण्डित जी तो सुखी बन सकते हैं, मृतकों की आत्माओं को कुछ नहीं मिलने वाला।
स्वर्ग-नरक
15. स्वर्ग-नरक कोई विशेष स्थान नहीं हैं। सुख विशेष का नाम स्वर्ग और दुःख विशेष का नाम नरक है। वे भी इसी संसार में शरीर के साथ ही भोगे जाते हैं। स्वर्ग-नरक के सम्बन्ध में गढ़ी गई कहानियां केवल कुछ नाम के पंडितों के भरण-पोषण के लिए बनाई हैं।

मृतक-कर्म
16. मनुष्य की मृत्यु के बाद उसके मृत-शरीर का दाहकर्म करने के पष्चात् अन्य कोई कार्य नहीं रह जाता। आत्मा की शान्ति या उद्धार के लिए करवाया जाने वाला गरुड़पुराण आदि का पाठ या मन्त्रजाप इत्यादि धर्म की आड़ लेकर अधार्मिक लोगों द्वारा किया जाने वाला प्रायोजित पाखण्ड है।
पूजा का अर्थ
17. जड़़ पदार्थों का उचित रखरखाव व सदुपयोग ही उनकी पूजा है। तुलसी और पीपल आदि के वृक्ष ज्वर इत्यादि रोगों में लाभदायक हैं। अतः इनकी रक्षा होनी चाहिये। लेकिन इनकी परिक्रमा करके या सूत लपेटकर नमस्कार आदि करने में अपना कल्याण या पुण्य मानना अज्ञानता है, पूजा नहीं।
भक्ति
18. एकान्त में बैठकर भगवत् चिन्तन करते हुये उसकी दयालुता, न्यायकारिता आदि गुणों को जीवन में धारण कर पवित्र जीवन जीने का नाम ही भक्ति है। लाखों के पण्डाल लगाकर फिल्मी धुनों पर स्त्री-पुरुष को नचाना, झूम-झूमकर गाना, तालियां बजाकर कीर्तन करवाना भक्ति के नाम पर घटिया मनोरंजन है।
मुहूर्त
19. जिस समय चित्त प्रसन्न हो, मौसम अनुकूल हो, तथा परिवार व पड़ोस में सुख शांति हो, वही शुभ मुहूर्त है। ग्रह-नक्षत्र की दशा देखकर पण्डितों से विवाह, व्यवसाय आदि का मुहूर्त निकलवाना शिक्षित समाज का लक्षण नहीं है।
राशिफल एवं फलित ज्योतिष
20. ग्रह और नक्षत्र जड़ हैं, और जड़ वस्तु का प्रभाव सभी पर एक जैसा पड़ता है। अतः ग्रह, नक्षत्र देखकर राशि निर्धारित करना एवं उन राशियों के आधार पर मनुश्य के विषय में भांति-भांति की भविष्यवाणियां करना नितान्त अवैज्ञानिक है। जन्मपत्री देखकर वर-वधू का चयन न करके हमें गुण, कर्म, स्वभाव और चिकित्सकीय परीक्षण के आधार पर रिश्ता तय करना चाहिए। जन्मपत्रियों के मिलान करके जिनके विवाह हुए हैं, क्या वे दम्पति पूर्णतः सुखी हैं? विचार करें राम-रावण व कृष्ण-कंस की राशि एक ही थी।
जादू टोने
21. भूत-प्रेत, जादू-टोना, गण्डे-ताबीज, यन्त्र-मन्त्र, झाड़-फूंक यह सब दिन दहाड़े तथाकथित धार्मिक लोगों द्वारा चलाया जाने वाला ठगी का कारोबार है। ज्योतिषियों की सलाह से अनिष्ट निवारण के लिए किए जाने वाले विभिन्न प्रकार के अनुष्ठान भी इसी कारोबार का विस्तार है।
जाति नहीं, वर्ण व्यवस्था
22. आर्यसमाज वर्ण व्यवस्था का समर्थक है। वर्ण व्यवस्था का आधार गुण-कर्म-स्वभाव है, जबकी जाति प्रथा जन्मजात है। वर्ण व्यवस्था में जो पढ़ाने से भी न पढ़े और अनपढ़ रहकर सेवा करे वह शूद्र कहलाता है और शिक्षित व संस्कारित होकर श्रेष्ठ कर्म करनेवाला द्विज अर्थात ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि कहलाता है। कर्म ही व्यक्ति को श्रेष्ठ और पतित बनाते हैं। वैदिक वर्ण व्यवस्था और मनु के अनुसार किसी भी कुल में जन्मा बालक शिक्षा व योग्यता के आधार पर ब्राह्मण आदि बन सकता हैं। विद्या और सदाचार से हीन ब्राह्मण का पुत्र भी शूद्र माना जाता है।
                आर्य समाज मानवमात्र की शारीरिक आत्मिक उन्नति के लिए कार्य करने वाली विश्वव्यापी संस्था है। भारत के धार्मिक और सामाजिक पुर्नजागरण के क्षेत्र में आर्य समाज का विशेष योगदान रहा है। आर्य समाज सत्य के ग्रहण करने और असत्य को त्यागने के अपने उदेश्य को लेकर अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि के लिए निरन्तर कार्य करता रहता है।
                धार्मिक अन्धविश्वासों, सामाजिक कुरीतियों और राजनैतिक पराधीनता से टूट चुके भारतीय जनमानस में सिंह जैसा साहस और आत्मबल फूंकने वाले पराक्रमी पुरुष, सत्यार्थ प्रकाश जैसे अनमोल ग्रन्थ के लेखक महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवन समाज, राष्ट्र और सम्पूर्ण मानवता के लिए विशेष प्रेरणादायक है।
                महर्षि का जीवन चरित्र पढ़कर आप भी अपना और अपने प्रिय जनों का शारीरिक, वैचारिक और आत्मिक विकास करें तथा परिवार समाज व राष्ट्र की सुख समृद्धि व शान्ति तथा जन सेवा के लिये अपने निकट के आर्य समाज से जुड़ें।
                ।। जय माँ भारती।।
-          डा देवराज मिश्र, सयोंजक
बौद्धिक कार्यक्रम के लिए संपर्क करें: मोबाइल +917351299319

No comments:

Post a Comment

बलात्कार: जिहाद का हथियार

बलात्कार :जिहाद का हथियार जिहाद दुनिया का सबसे घृणित कार्य और सबसे निंदनीय विचार है .लेकिन इस्लाम में इसे परम पुण्य का काम बताया गया है .जिह...